(Influencer Media) : ऊर्जा के क्षेत्र में पिछले कई दशकों से भारत नए-नए अवसर तलाश रहा है। सूरज, हवा और पानी जैसे प्राकृतिक संसाधनों के बाद अब वैज्ञानिक बायोमास यानी कि पेड़-पौधों और कृषि से निकलने वाले अपशिष्ट से ऊर्जा के स्रोत ढूंढ रहे हैं। हम सब जानते हैं कि पेड़ों के सूखे पत्तों को आसानी से जलाकर ‘हीट एनर्जी’ मिल सकती है। लेकिन क्या इस ऊर्जा को बिजली में बदला जा सकता है जैसे सौर ऊर्जा और पवन ऊर्जा से संभव है? इस विषय में लगातार इनोवेशन और फिर उनमें संशोधन हो रहे हैं।
बायोमास से बिजली उत्पादन
बहुत से पेड़-पौधे हैं जिनसे बिजली बनाई जा सकती है। इकोनॉमिक टाइम्स की एक रिपोर्ट के मुताबिक भारत बायोमास से लगभग 18,000 मेगावाट बिजली का उत्पादन कर सकता है। इसके लिए सरकार ने योजनाएं भी शुरू की हैं। अच्छी बात यह है कि सरकार की यह पहल अब सिर्फ कागजों पर सीमित नहीं है बल्कि उत्तराखंड के पहाड़ों में यह फलती-फूलती नजर आ रही है।
शेखर बिष्ट की प्रेरणादायक यात्रा
अल्मोड़ा जनपद में द्वारहाट के कुंथड़ी गाँव के रहने वाले 32 वर्षीय शेखर बिष्ट पिछले 7 सालों से चीड़ के सूखे पत्तों से बिजली बना रहे हैं। चीड़ के पत्तों को पहाड़ों में पिरूल कहा जाता है और यह अनगिनत मात्रा में जंगलों में उपलब्ध हैं। बिष्ट के मुताबिक जंगलों में आग लगने की एक बड़ी वजह पिरूल ही है। यह बहुत जल्दी सूखते हैं और तुरंत आग पकड़ लेते हैं। पहाड़ों में लोग इन्हें बतौर ईंधन भी खूब इस्तेमाल करते हैं। और अब इन्हीं पिरूल को बिजली उत्पादन के लिए इस्तेमाल किया जा रहा है।
शिक्षा और प्रारंभिक जीवन
शेखर बिष्ट ने दसवीं के बाद आईटीआई का कोर्स किया और फिर पॉलिटेक्निक की। पॉलिटेक्निक के बाद उन्होंने पंजाब टेक्निकल यूनिवर्सिटी से इंजीनियरिंग की डिग्री हासिल की। वह कहते हैं, “मैंने टाटा मोटर्स जैसी कई नामी कंपनियों में लगभग 5-6 साल तक अपनी सेवाएं दीं। लेकिन इसके साथ-साथ मेरी रुचि हमेशा ही कोई स्वरोजगार ढूंढने में रही और वह मुझे पिरूल में मिला।”
नवाचार
बिष्ट ने पिरूल से बिजली उत्पादन के विषय पर कई सालों तक रिसर्च की। उन्होंने पढ़ाई के दौरान ही इस पर काम शुरू किया था और इस काम में उन्हें सहयोग मिला ‘अवनि संस्था’ का। पहाड़ों के लोगों के लिए रोजगार के अवसर ढूंढने के उद्देश्य से शुरू हुआ यह संगठन लगातार नए-नए प्रयोगों में लोगों की मदद कर रहा है। बिष्ट ने भी इसी कैंपस में अपने ट्रायल्स किए। इतना ही नहीं, उन्हें अवनि संगठन की मदद से ही अपना प्लांट लगाने के लिए इन्वेस्टमेंट मिली। वह बताते हैं कि साल 2016 में उन्होंने अपनी नौकरी छोड़ दी और अपने गाँव आ गए।
प्रोजेक्ट में सरकारी उपेक्षा
शेखर बिष्ट ने अपने पिरूल से बिजली उत्पादन के प्रोजेक्ट को उत्तराखंड सरकार के समक्ष प्रस्तुत किया और कई डेमो प्रोजेक्ट भी दिखाए। इस सफल प्रोजेक्ट को देखकर तत्कालीन मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र रावत ने सरकार की पूरी मदद मदद का आश्वासन दिया था, क्योंकि उत्तराखंड सरकार भी इस दिशा में कई सालों से काम कर रही थी । हालाँकि, शेखर बिष्ट का कहना है कि सरकार द्वारा अब उन्हें किसी भी प्रकार की सहायता नहीं दी जा रही है, और वे अपने प्रोजेक्ट को स्वयं के प्रयासों से आगे बढ़ा रहे हैं। उन्होंने यह भी दावा किया कि उत्तराखंड सरकार ने 2017 से पिरूल सब्सिडी के रूप में लगभग 15 लाख रुपये की राशि भी जारी नहीं की है।
पिरूल से बिजली उत्पादन: एक सफल प्रयास
उत्तराखंड के कुल वन क्षेत्र का 3,99,329 हेक्टेयर भाग सिर्फ चीड़ के पेड़ों का है और यहाँ पर पिरूल की काफी मात्रा है। इसलिए पिरूल से बिजली उत्पादन के सफल प्रयोगों को देखते हुए सरकार ने योजना बनाई। जो भी कंपनी पिरूल से बिजली उत्पादन के लिए पहाड़ों में प्लांट लगाएगी, उनसे वह बिजली उत्तराखंड पावर कारपोरेशन (सरकारी बिजली कंपनी) 8.00 रुपये प्रति यूनिट के हिसाब से खरीदेगी। इसके लिए यूपीसीएल ने कंपनियों के साथ एग्रीमेंट करना भी शुरू कर दिया है।
रोजगार के नए अवसर
यूपीसीएल, द्वारहाट के एसडीओ बताते हैं कि पिरूल से बिजली उत्पादन एक अच्छे स्वरोजगार के अवसर के रूप में सामने आया है। पिरूल का यह सही उपयोग पहाड़ों में पलायन को रोक सकता है क्योंकि इससे लोगों को अपने घर में ही रोजगार मिल रहा है। साथ ही, पिरूल जंगलों में आग लगने की बड़ी वजह है जिसमें लाखों-करोड़ों की संपत्ति के साथ वन्यजीवों की भी काफी क्षति होती है।
भविष्य की उम्मीदें
बिष्ट कहते हैं कि उन्होंने द्वारहाट में अपना प्लांट सेट-अप किया और साल 2017 से बिजली उत्पादन करना शुरू किया। 28 किलोवाट ऊर्जा क्षमता वाला यह प्लांट प्रतिदिन 250 यूनिट बिजली उत्पादन कर रहा है और इस बिजली को वह यूपीसीएल को बेच रहे हैं। हर महीने लगभग 6 हजार यूनिट्स कंपनी को बेची जाती हैं और जिससे उन्हें प्रतिमाह लगभग 60 हजार रुपये की कमाई होती है।
पिरूल संग्रहण और उत्पादन
साल के अप्रैल महीने से लेकर जुलाई के महीने तक पिरूल गिरते हैं। इन पत्तों को इकट्ठा करने के लिए बिष्ट ने गाँव की ही 20 महिलाओं को लगाया हुआ है। इन महिलाओं से वह 2 रुपये किलोग्राम के हिसाब से पिरूल खरीदते हैं। 4 महीने में वह लगभग 250 टन पिरूल इकट्ठा करते हैं और यह पूरे साल के बिजली उत्पादन के लिए काफी रहता है। एक यूनिट बिजली उत्पादन के लिए एक से डेढ़ किलो पिरूल खर्च होता है।
ऊर्जा उत्पादन
प्लांट में सबसे पहले पिरूल को जलाया जाता है और इससे निकलने वाली गैस को जनरेटर और गैसीफायर द्वारा ऊर्जा में बदला जाता है। फिर इस ऊर्जा को पैनल और ग्रिड्स के जरिए बिजली में परिवर्तित कर यूपीसीएल को दिया जाता है। बिष्ट के प्लांट में गाँव के 4 युवक काम करते हैं और उन्हें भी अच्छा रोजगार मिला हुआ है। अब उनके यूनिट से टार के डिस्पोजल पॉलीबैग भी बनाये जा रहे हैं, उनसे भी अच्छी आय हो रही है।
इस तरह से पिरूल कमाई और रोजगार, दोनों का अच्छा विकल्प साबित हो रहा है। उत्तराखंड सरकार अपनी इस पॉलिसी के अंतर्गत, साल 2030 तक 100 मेगावाट बिजली उत्पादन का लक्ष्य रख रही है। शेखर बिष्ट जैसे काबिल नागरिकों के चलते यह लक्ष्य साकार होता भी दिखता है।
शेखर बिष्ट ने पिरूल से बिजली उत्पादन की तकनीक को न केवल विकसित किया बल्कि उसे व्यावहारिक रूप से लागू भी किया। उनके इस प्रयास ने पिरूल को एक समस्या से एक संसाधन में बदल दिया है। उनके प्लांट ने स्थानीय लोगों को रोजगार प्रदान किया है और सरकार को इस दिशा में आगे बढ़ने के लिए प्रेरित किया है। बिष्ट की सफलता ने यह साबित किया है कि छोटे स्तर पर भी तकनीकी नवाचार बड़े बदलाव ला सकते हैं।
शेखर बिष्ट की कहानी हमें यह सिखाती है कि किस प्रकार नवाचार और दृढ़ संकल्प के साथ हम प्राकृतिक संसाधनों का सही उपयोग करके न केवल ऊर्जा की आवश्यकता को पूरा कर सकते हैं, बल्कि स्थानीय लोगों को रोजगार के नए अवसर भी प्रदान कर सकते हैं।
अगर आप शेखर बिष्ट से संपर्क करना चाहते हैं तो आप उन्हें 8057506070 पर मैसेज कर सकते हैं!